भारत में बुजुर्गों की स्थिति जिस तरह दयनीय होती जा रही है उस पर विचार करने की आवश्यकता है । संयुक्त परिवार के टूटने के साथ ही भारतीय पारिवारिक संस्कार एवं मर्यादाएं भी टूटकर बिखर रही हैं । कुछ तो मजबूरियां होती है और कुछ बच्चों की अपने बुजुर्ग माँ बाप के प्रति उदासीनता भी। भागती दौड़ती जिंदगी में खास कर पढे लिखे नौजवान जिस तरह स्वकेंद्रित होते जा रहे हैं यह शुभ संकेत नहीं है । आखिर उम्र किसके साथ रहा है । एक दिन तो सबको उसी गली से गुजरना है। प्रस्तुत है इसी की विवेचना करती एक कविता (नवगीत ):::::
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बहुत दिनों से कोई ना आया
आंगन रहा उदास
आँगन जिसमे खुशियाँ लोटी
गूंजी थी किलकारी
अब एक पल भी जीना
लेकिन
लगता कितना भारी
दिवस का यह चौथा पहर
तनहाई और सूना घर
कौओं संग बातें करती
उसको ही
सुख दुःख कहती
सूने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास
सँग नहीं अब कंचन काया,
पास नहीं
कर में माया.
नींद निशा भर
आती नहीं
ममता मगर जाती नहीं
सूरज के उगने के संग
जगती है नई
नित आस
देखे बिन निज लाल को
बुझती नहीं आखों की प्यास
दो गह्वर से सावन झरता
हृदय हो जाता
खारा
जिन पौधों को सस्नेह सींचा
परदेश बसा प्यारा
चूल्हे में लकड़ी जलती
भीतर भीतर जलता मन
उम्मीद की पतली डोर से
टिका हुआ है
निर्बल तन .
जीवन में कोई रंग नहीं
नहीं रंग का प्रयास .
बहुत दिनों से कोई न आया
आंगन रहा उदास
सूने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास ..
नीरज कुमार नीर
#neeraj_kumar_neer
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चित्र गूगल से साभार.